Wednesday, September 23, 2009

एक कला है रिश्ते सहेजकर रखना !

हम चाहे जितना रुपया कमा लें, संपत्ति बना लें, दौड़ में थकने के बाद रिश्तों की गरमाहट का संबल सभी के लिए जरूरी हो जाता है। आखिर हमारी समृद्धि कोई देखने वाला तो हो, हमारी प्रसिद्धि की कोई तारीफ करने वाला तो हो... और ये सब हमें तभी मिलेगा, जब हम स्वयं हाथ बढ़ाएँगे छोटे-बड़े रिश्तों को सहेजने को।

आज जहाँ आर्थिक विकास की अंधी दौड़ में लोग रिश्तों की अहमियत भूलते जा रहे हैं, रिश्ते अपना महत्व खोते जा रहे हैं, केवल फायदों की राजनीति देखते हुए रिश्ते बनाए या बिगाड़े जा रहे हों, वहाँ कुछ परिवार न केवल रिश्तों को बनाए रखने में यकीन करते हैं बल्कि अपने स्नेह, त्याग व अनथक प्रयासों से भरसक रिश्तों की गरमाहट को सालों सहेजते रहते हैं।

हंसा आठ वर्ष की एक प्यारी-सी बच्ची है। चार वर्ष पहले उसकी माँ की दुर्घटना में मौत हो गई। माँ की मौत के सदमे से एक वर्ष बाद ही उसके पिता भी चल बसे- "लड़की की जात है- कौन सम्हाले" कहकर करीबी रिश्तेदारों ने हाथ झटक लिए- ऐसे में आगे आई हंसा की माँ की करीबी सहेली जो अविवाहित थी।

"दुनिया में आए हैं, तो इतना प्यार बाँटना चाहिए कि आपके जाने के बाद कुछ लोगों की आँखें आपको याद कर बरसती रहें" जैन साहब के जीवन का ये सीधा-सा समीकरण है, जो उन्हें बुढ़ापे में भी ऊर्जावान बनाता है। उसने विधिवत हंसा को गोद ले लिया और अपने बच्चे से भी बढ़कर देखभाल की उसकी। आज हंसा के दिमाग में माँ की स्मृति तक धूमिल हो चुकी है - उसे याद है उसकी नई माँ...। प्रणव के विवाह को पाँच वर्ष हो गए थे। पत्नी की अकाल मृत्यु हो गई। प्रणव के जीवन का एकमात्र सहारा था उसका बेटा "प्रांशु"। "सौतेली माँ" की भयावह कल्पना के चलते प्रणव कई वर्षों तक दूसरे विवाह के बारे में सोच भी न पाया।

फिर अचानक उसे मीता पसंद आ गई- हालांकि "प्रांशु" को लेकर डर अभी भी था। ऐसे में मीता ने सारी परिस्थिति को सहृदयता सा समझा, प्रांशु को अपनापन दिया। प्रांशु को ही बेटा मानकर अपनी संतान को जन्म देने का विचार भी उसने त्याग दिया। आज "प्रांशु" कॉलेज में है और मीता उसके लिए दुनिया में सबसे अच्छी माँ है।

जैन साहब का दुनिया को देखने का तरीका और भी निराला है। वे इस दुनिया में अकेले हैं, ईश्वर की दया से रुपया और स्वास्थ्य दोनों ही वरदान के रूप में साथ हैं। उनके यहाँ पढ़ने आने वाले बच्चों का "मेला" लगा रहता है। जैन साहब की सभी रिश्तेदारों से प्रार्थना रहती है कि उनके शहर में पढ़ने के लिए आने वाले बच्चे उनके घर में ही रहें।

रिश्तेदारों को भला क्यों आपत्ति हो, उनके बच्चों को जैन साहब का स्नेह व अनुशासन भरा मार्गदर्शन मिलता है और जैन साहब का अकेलापन दूर हो जाता है। "दुनिया में आए हैं, तो इतना प्यार बाँटना चाहिए कि आपके जाने के बाद कुछ लोगों की आँखें आपको याद कर बरसती रहें" जैन साहब के जीवन का ये सीधा-सा समीकरण है, जो उन्हें बुढ़ापे में भी ऊर्जावान बनाता है।

वास्तव में मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और रिश्तों की उसे सतत आवश्यकता होती है। चाहे ये रिश्ते दोस्ती के हों, पहचान के हों या खून के। आजकल नौकरी-व्यापार के सिलसिले में परिवार एक छोर से दूसरे छोर तक बिखरते जा रहे हैं, आपसी संपर्क भी लगभग समाप्त होते जा रहे हैं।

ऐसे में अगली पीढ़ी के बच्चे तो शायद अपने रिश्तेदारों-भाई-बहनों से पहचान भी न बना पाएँ। आखिर में प्रसिद्धि की कोई तारीफ करने वाला तो हो और ये सब हमें तभी मिलेगा, जब हम स्वयं हाथ बढ़ाएँगे छोटे-बड़े रिश्तों को सहेजने का, उनमें स्नेह-विश्वास को सिंचित करने का और बड़ा सरल सा उपाय है इन्हें सहेजने का। वह है संपर्क। फिर आज की संचार क्रांति ने तो संपर्क इतना आसान बना दिया है। तो क्यों न हम भी अपनाएँ इसे और ले आएँ रिश्तों में प्रगाढ़ता।

4 comments:

  1. Rishton ki ahmiyat shyad gine chune log hi samjh paate hain..warna to apni suvidhanusaar hi rishte banaate aur todte hain.....aapka lekh kaafi achha laga.

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  2. Bahut Bahut Shukriya Aapka Neelu Ji..........

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  3. आदरणीय Neeraj Sharmaa जी
    आपकी प्रस्तुति बहुत सुंदर है ...आपने सही कहा है कि रिश्तों को संभाल कर रखना भी एक कला है ....आपका लेखन निरंतर आगे बढे यही शुभकामना है ...शुक्रिया आपका इस संजीदा प्रस्तुति के लिए

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